भारत में मानवशास्त्रीय अध्ययन श्रृंखला का प्रारम्भ एशियाटिक सोसाइटी के बंगाल में स्थापना काल १७७४ से माना जाता है. १९१२ में शरत चन्द्र रॉय ने भारतीय जनजातियों का अध्ययन शुरू किया. किसी भारतीय द्वारा मानव शास्त्रीय अध्ययन का पहला प्रयास हुआ.१९१७ बिहार और ओडिसा रिसर्च सोसाइटी कि स्थापना का समय है.इस काल के प्रारम्भ में ही श्री शरत चन्द्र रॉय कि मुंडा(१९१२) तथा उरांवों(१९१५) जनजाति सम्बन्धी अध्ययन प्रकाशित हुए.तदुपरांत ईस प्रथम पीढ़ी के अनेकानेक विद्वानों ने मानवशास्त्रीय अध्ययन प्रकाशित किया.
१७७४ से १९१९ ईस.के अध्ययन को प्रोफेसर विद्यार्थी ने "फॉर्मेटिव" काल,१९२० से १९२० से १९४९ तक"कंस्ट्रुक्टिव"काल तथा १९५० से आगे "एनालिटिकल" काल कि संज्ञा दी है. वर्त्तमान काल खंड को प्रोफेसर विद्यार्थी ने "एनालिटिकल" कहा क्योंकि पहली बार भारतीय मानवशास्त्र सम्बन्धी चिंतन प्रारम्भ हुआ.अब" भारतीय संस्कृति " के मूल तथ्ययो कि ओर ध्यान गया और यह पाया गया कि धर्म भारतीय संस्कृति का प्राण तत्त्व है अतः इसके अध्ययन के बिना मानव शास्त्र का भारतीयकरण नहीं हो सकता. अब १९६० के दसक से ईस अध्य्यन कि ओर रुझान बढ़ा जिसे प्रोफेसर रोबर्ट रेडफील्ड(शिकागो विश्व -विद्यालय) का नेतृत्व प्राप्त था.
रेडफील्ड के चिंतन से मानव शास्त्र "लघु समुदाय" के अध्ययन से , " सरल" से " जटिल" समुदाय के अध्य्यन कि ओर अग्रसर होने लगा. उनकी "ग्राम्य- शहर- सातत्य" कि अवधारणा ने एक नए युग कि आधारशिला रखी. इसी समय डेविड मंडेलबोन कि टीम भारत के "ग्राम्य जीवन" के अध्यन हेतु यहाँ आयी और "ग्राम्य अध्ययन" कि परंपरा का उद्घोष हुआ. इन दोनों प्रकार के अनुसंधानों ने भारतीय मानवशास्त्र को नए दिशा कि और उन्मुख किया. तदुपरांत मैसूर नरसिम्हाचार श्रीनिवास और श्यामा चरण दुबे ने अपने ग्राम्य अध्ययन के माध्यम से नई संकल्पनाओं यथा" संस्कृतिकरण " और " प्रबल जाति" का विकास किया. एक ओर जब ग्राम्य अध्ययन चल रहा था तो दूसरी ओर "शहरी अध्ययन" मिल्टन सिंगर तथा मकिम मारिओट के द्वारा किया जा रहा था . रेडफील्ड के नेतृत्व में " लघु-बृहत् परंपरा" कि संकल्पना के आधार पर ललिता प्रसाद विद्यार्थी संथालपरगना के जनजातियों में "प्रकृति-मानव-आत्मा"तथा गया के धार्मिक क्षेत्र में " पवित्र संकुल" कि संकल्पना विकसित कर रहे थे जो कालांतर में भारतीय मानव शास्त्र में अध्ययन कि बड़ी संकल्पना के रूप में उभरने वाला था.. इस काल खंड को भारतीय मानवशास्त्र का "स्वर्णयुग" कहा जा सकता है.
भारतीय मानवशास्त्र का वर्त्तमान और विस्तार:
१९५० के दसक तक यह केवल ६ विस्वविद्यालयों यथा:कोलकत्ता,पुणे,लखनऊ,बिहार,देलही,सागर तक सीमित था परन्तु शोध के अनगिनत आयामों को इस काल में अंजाम दिया गया. तत्कालीन मानवशास्त्रीय सिद्धांतों यथा:उद्विकासवाद,प्रकार्यवाद,प्रसारवाद,संरचनावाद,संरचनात्मक-प्रकार्यवाद,संस्कृति और व्यक्तित्ववाद तथा लेवी स्ट्रॉस का संरचनात्मक- प्रतीकवाद पर अनेकानेक भारतीय मानवशास्त्रियों के अध्ययन प्रकाशित हुए.इन प्रकाशनों ने मानवशास्त्र को ठोस धरातल प्रदान किया.भारत सरकार ने भी इन्हे समसामयिक यथार्थ पर आधारित अध्ययन मानते हुए अपनाया." भारतीय मानव विज्ञानं सर्वेक्षण" कि स्थापना हुई जो मील के पत्थर कि तरह है.योजना आयोग ने भी मानव शास्त्रीय अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते हुए आदिवासी विकास कि युधनीति तय करने में सफलता पाई .
वर्त्तमान समय में , मानवशास्त्र तकरीबन ४० भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है.नित नए समस्या प्रधान अध्ययन हो रहें है . अभी २१ विन सदी के प्रारम्भ में ही भारत में निवसित लगभग सभी समुदायो से सम्बंधित तथ्य तथा आंकड़ो का विशाल भण्डार :पीपल ऑफ़ इंडिया" के प्रकाशन से सम्भव हो पाया है. बायोलॉजिकल मानवशास्त्र को भी जेनोम प्रोजेक्ट ने नया आयाम प्रदान किया है.
कुल मिलाकर यह माना जा सकता है कि भारतीय मानवशास्त्र उत्तरोत्तर आगे बढ़ रहा है.अब जरुरत इस बात कि है कि सरकार तथा अन्य संस्थाएं इसकी महत्ता को देखते हुए मानवशास्त्रियों को उचित अवसर तथा स्थानं दें और नियोजित करें.
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